Monday, December 10, 2007

उदास न हो

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।

कदम कदम पे चट्टानें खड़ी रहें,
लेकिन जो चल निकलते हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते।
हवाएँ कितना भी टकराएँ आंधियाँ बनकर,
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर .....

हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है।
हज़ारों चांद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फिज़ाओं पे मुस्कुराती है।
मेरे नदीम मेरे हमसफर ....

जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो ज़िन्दगी में नया रंग ला नहीं सकते।
जो रास्ते के अन्धेरों से हार जाते हैं
वो मंज़िलों के उजालों को पा नहीं सकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।


साहिर लुधियानवि [संकलन]

चुप सी लगी है

चुप सी लगी है।
अन्दर ज़ोर
एक आवाज़ दबी है।

वह दबी चीख
निकलेगी कब?
ज़िन्दगी आखिर
शुरू होगी कब?
कब?

खुले मन से
हंसी कब आएगी?
इस दिल में
खुशी कब खिलखिलाएगी?
बरसों इस जाल में बंधी,
प्यास अभी भी है।
अपने पथ पर चल पाऊँगी,
आस अभी भी है।
पर इन्त्ज़ार में
दिल धीरे धीरे मरता है
धीरे धीरे पिसता है मन,
शेष क्या रहता है?

डर है, एक दिन
यह धीरज न टूट जाए
रोको न मुझे,
कहीं ज्वालामुखी फूट जाए।
वह फूटा तो
इस श्री सृजन को
कैसे बचाऊँगी?
विश्व में मात्र एक
किस्सा बन रह जाऊँगी।
समय की गहराइयों में
खो जाऊँगी।


नीलकमाल [संकलन]

Sunday, December 2, 2007

तेरे आने का धोखा सा रह है


तेरे आने का धोखा सा रहा है
दिया सा रात भर जलता रहा है

अजब है रात से आँखों का आलम,
ये दरिया रात भर चऱ्ह्ता रहा है

सुना है रात भर बरसा है बादल,
मगर वो शहर जो प्यासा रहा है?

वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का,
जो पिछली रात से याद रहा है

किसे ढूँढोगे इन गलियों मेंनासिर”?
चलो अब घर छलें, दिन जा रहा है

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[ संकलन ]

Saturday, December 1, 2007

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाये


ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखुऊं दिलनवाज़ी की
ना तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
ना ज़ाहिर हो तुम्हारी कसम-कस कॅया राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनो.

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराए हैं
मेरे हमराह भीइ रुसवाइयां हैं मेरे माज़ी कीई
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनो

तार्रूफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उससे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों.

साहिद लुढ़यानवि [ संकलन ]
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Friday, November 30, 2007

वो रुला के हंस न पाया देर तक

वो रुला कर हँस ना पाया देर तक
जब मैं रो कर मुस्कुराया देर तक

भुूलना चाहा कभी उस को अगर
और भी वो याद आया देर तक

ख़ुद ब ख़ुद, बे-साखता मैं हँस परा
उसने इस दर्जा रुलाया देर तक

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक

गन-गुनाता जा रहा था इक फक़ीर
धूप रह्ती है ना छाया देर तक

कल अन्धेरी रात में मेरी तरह
एक जुगनु जगमगाया देर तक

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ख़ुद बा ख़ुद : अपने ही आप
बे-साखता : ख़ुद ब ख़ुद

नवाज़ देओबन्दि
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