Saturday, December 1, 2007

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाये


ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखुऊं दिलनवाज़ी की
ना तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
ना ज़ाहिर हो तुम्हारी कसम-कस कॅया राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनो.

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराए हैं
मेरे हमराह भीइ रुसवाइयां हैं मेरे माज़ी कीई
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनो

तार्रूफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उससे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों.

साहिद लुढ़यानवि [ संकलन ]
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